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स्थानीय बाजार में बढ़ा बिहान के समूहों का दबदबा, पौने तीन करोड़ की कर ली बचत

2019 से अब तक 3676 समूह गठित, वर्मी कंपोस्ट से लेकर सैनेटाइजर निर्माण जैसी अनेक गतिविधियों में अग्रणी हैं समूह की महिलाएं

 

       दुर्ग। स्व-सहायता समूहों को बढ़ावा देने का अवसर उपलब्ध करा राज्य सरकार ने आधी आबादी को सशक्त करने की राह सुलभ कर दी है। राज्य सरकार की नरवा, गरूवा, घुरूवा, बाड़ी योजना के क्रियान्वयन से महिला समूहों की आर्थिक ताकत बढ़ी है। वर्ष 2019 से अब तक 3676 समूह गठित किये जा चुके हैं। इनमें वर्मी कंपोस्ट से लेकर सैनेटाइजर निर्माण तक की अनेक गतिविधियां हो रही हैं जिससे आर्थिक विकास का नया मार्ग खुला है। इन समूहों ने बैंकों से लगभग 29 करोड़ रुपए का ऋण लिया है। बिहान योजना के माध्यम से इन्हें 3.60 करोड़ रुपए की चक्रीय निधि एवं 5 करोड़ 65 लाख रुपए की सामुदायिक निवेश निधि उपलब्ध कराई गई है। इसका सदुपयोग कर वे वित्तीय समावेशन के क्षेत्र में शानदार कार्य कर रही है। उनका रिकार्ड बेहद अच्छा रहा है। जिला प्रशासन ने इनके लिए उपयुक्त ट्रेनिंग की व्यवस्था की तथा बाजार के अवसरों का लाभ उठाने मार्केटिंग तथा ब्रांड प्रमोशन के लिए जरूरी बातें भी सिखाईं। समय-समय पर इन्हें उपयुक्त बाजार भी उपलब्ध कराया ताकि इनकी गुणवत्तायुक्त सामग्री की पहुँच आम आदमी तक भी हो। यह सार्थक प्रयास रहा। जिला पंचायत सीईओ श्री सच्चिदानंद आलोक ने बताया कि बैंक लिंकेज, ब्रांड मेकिंग के लिए प्रशिक्षण और बाजार उपलब्ध कराना, इन तीनों बिन्दुओं पर कार्य किया गया है। इसके अच्छे परिणाम सामने आये हैं और आर्थिक भागीदारी के लक्ष्य की ओर महिलाएं तेजी से अपने कदम बढ़ा रही हैं।

       पौने तीन करोड़ रुपए की बचत- अब तक इन समूहों ने 2 करोड़ 75 लाख रुपए की बचत की है। इन बचत के माध्यम से इनकी छोटी-बड़ी जरूरत पूरी हुई है। सबसे बड़ी बात यह है कि आर्थिक क्षेत्र में सशक्त होने से परिवार में भी इनकी मजबूती बढ़ी है। इन समूहों के लिए सबसे अच्छा अवसर नरवा, गरूवा, घुरूवा, बाड़ी योजना के माध्यम से आया। 263 गौठानों में 664 स्व-सहायता समूह बने। इनमें 450 समूहों ने गोधन न्याय योजना के अंतर्गत वर्मी कंपोस्ट निर्माण का कार्य किया। इससे उन्हें 1 करोड़ 66 लाख रुपए की आय अर्जित हुई। शेष 214 समूहों ने सामुदायिक बाड़ी, मछली पालन, मुर्गी पालन, बटेर पालन, गोबर का गमला, दीया, राखी निर्माण जैसी गतिविधि की और इसके माध्यम से 54 लाख रुपए की आय अर्जित की।

       स्थानीय उत्पादों के बाजार में बढ़ाई हिस्सेदारी- संवहनीय कृषि के अंतर्गत जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए जिन 80 ग्रामों का चयन किया गया उनमें 6949 महिलाओं ने इसके लिए कार्य किया। ऐसे 254 समूहों की महिलाओं ने अगरबत्ती, साबुन, फिनाइल, डिश वाश, हैंडवाश, सैनेटाइजर, आचार, बड़ी, पापड़ जैसे स्थानीय उत्पादों का निर्माण किया। उत्पादों में गुणवत्ता का विशेष ध्यान रखा गया और इस वजह से इन्हें शानदार प्रतिसाद मिला।

 

विशेष लेख
घर के पीछे सुंदर सी बाड़ी, हर घर साकार हो रही बाड़ी
       जलबिन्दु निपातेन, क्रमशः पूर्यते घटतः। यह सुभाषित श्लोक हम अक्सर सुनते हैं। यह श्लोक कहता है कि बूंद-बूंद सहेजने पर घड़ा भी भर जाता है अर्थात असंभव चीजें भी घटित होती हैं। हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे ही विपुल संसाधन मौजूद हैं लेकिन समय के साथ धीरे-धीरे भटकाव की वजह से अनेक सुंदर परंपराएं विलुप्त हो गईं। छोटी-छोटी भूमि को सहेज कर बड़ा कार्य किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पहले बाड़ियाँ होती थीं। घर के पिछवाड़े बाड़ियाँ, अक्सर कुँआ भी आसपास होता था। इन बाड़ियों को पानी वहीं से मिल जाता। धीरे-धीरे बाड़ियों का चलन घटता गया, जहाँ बाड़ियाँ थीं उनमें अधिकांश जगहों पर झाड़झंखाड़ उग गये या निष्प्रयोजित भूमि पड़ी रही। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने नरवा, गरूवा, घुरूवा, बाड़ी योजना के माध्यम से इन्हें पुनर्जीवित करने के लिए लोगों  को प्रेरित किया।
       अब सामूहिक बाड़ियों के साथ ही लोग घरेलू बाड़ियों की ओर भी रुख कर रहे हैं। हर घर में बाड़ियां आरंभ होने से सब्जी एवं फलों का क्षेत्राच्छादन काफी विस्तृत होगा। यह न केवल घर की जरूरतों के लिए अपितु गाँव और नजदीकी शहरों की जरूरत के लिए भी उपलब्ध होगा। बाहर की बड़ी मंडियों से सब्जी मंगाने पर मध्यस्थों के बड़े नेटवर्क की वजह से सब्जी की कीमत काफी बढ़ जाती है साथ ही अधिकांश सब्जी भी रासायनिक खाद वाली होती है। गाँवों में बाड़ियों में जैविक खाद का उपयोग हो रहा है। जैविक खाद के उपयोग से उत्पादित होने वाली सब्जी स्वादिष्ट भी होती है। सबसे बड़ी बात यह होती है कि रासायनिक खादों का दुष्प्रभाव बाड़ी से उत्पादित इन सब्जी पर नहीं पड़ता। ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण को दूर करने में भी यह बाड़ियाँ बेहद कारगर हो रही हैं। बाड़ी से होने वाले उत्पादन से अपने घरेलू सब्जी की जरूरत वे पूरी कर रही हैं।
       सब्जी के उत्पादन से इसका खर्च बचता है। पोषण स्तर के रूप में लाभ मिलता है। सामूहिक बाड़ियों के माध्यम से भी समूह बड़ी मात्रा में सब्जी उगा रहे हैं। इसकी विशेषता यह है कि ये सब्जी की विविध प्रजाति उगा रहे हैं। शासन की मदद से सब्जी के उत्पादन में नई टेक्नालाजी का सहारा भी ले रहे हैं। ग्राम फेकारी का उदाहरण लें, यहाँ की स्व-सहायता समूह की महिलाएं लगभग तीन एकड़ में बैंगन की सब्जी उगा रही हैं। उनकी बैंगन की प्रजाति कल्याणी प्रजाति की है। इसके लिए उन्होंने ड्रिप सिस्टम वगैरह बनाया है।
       गौठानों को विकसित करने एवं गोधन न्याय योजना के प्रोत्साहन से लाभ यह मिला है कि कंपोस्ट खाद अब पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। सब्जी उत्पादक जो किसान दीर्घकाल के लिए अपनी मिट्टी की गुणवत्ता को बचाये रखना चाहते हैं। वे गोबर खाद की ओर बढ़ रहे हैं। गोबर खाद के उपयोग से तैयार होने वाली बाड़ियों की सब्जी में अलग तरह का ही स्वाद आ रहा है जिसकी वजह से इसकी अच्छी डिमांड आ रही है।
       मुख्यमंत्री के निर्देश पर बाड़ी उत्पादकों को प्रोत्साहन देने उद्यानिकी विभाग के अधिकारी निरंतर सजगता से मानिटरिंग कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से इन बाड़ियों का दायरा बढ़ रहा है।

एनआरसी लाया गया तब हीमोग्लोबिन साढ़े तीन प्वाइंट था, तुरंत कराया गया ब्लड ट्रांसफ्यूजन, बच्चा अब बिल्कुल स्वस्थ
अब तक 70 बच्चों को मिली एनआरसी से संजीवनी
एनआरसी में सीबीसी, लीवर फंक्शन, किडनी फंक्शन, पीपीडी एक्सरे आदि जांच होती है इससे बच्चे के कुपोषण का कारण पता लगता है और उससे निदान की शुरूआत होती है
एपेटाइट टेस्ट के मुताबिक दी जाती है डाइट
       दुर्ग। जिले में संचालित एनआरसी सेंटर गंभीर कुपोषित बच्चों को कुपोषण के दानव से बचाने के लिए पूरी तरह भरोसेमंद साबित हो रहे हैं। आज एनआरसी पाटन से दो बच्चे डिस्चार्ज हुए। इनमें से एक बच्चा राघव पाटन विकासखंड के ग्राम फेकारी का था। बच्चे को आंगनबाड़ी केंद्र के माध्यम से अभिभावक यहाँ पर लेकर आये थे। अब राघव पूरी तरह स्वस्थ है। इसकी जानकारी देते हुए बीएमओ डॉ. आशीष शर्मा ने बताया कि एनआरसी में हम बच्चों के कुपोषण के मूल में जाते हैं। बच्चा कुपोषित है तो इसके दो कारण हो सकते हैं एक तो उसके खानपान की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा अथवा कोई चिकित्कीय समस्या होगी। हमने प्रोटोकाल के मुताबिक सीबीसी, लीवर फंक्शन, किडनी फंक्शन आदि जरूरत के मुताबिक सभी टेस्ट किये। टेस्ट में पाया गया कि हीमोग्लोबिन बहुत ही कम है और साढ़े तीन चला गया है। तुरंत बच्चे को ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए जिला अस्पताल भेजा गया। बच्चे की त्वचा शुष्क थी, मुंह में छाले थे। पंद्रह दिन बार आज बच्चा डिस्चार्ज हुआ। राघव पूरी तरह स्वस्थ है और अब उसका हीमोग्लोबीन 10.5 हो गया है। वजन भी लगभग साढ़े सात किलोग्राम हो गया है। उल्लेखनीय है कि एनआरसी में डॉ. आशीष शर्मा के साथ ही डॉ. नवीन तिवारी एवं डॉ. आशिया परवीन की टीम ने बच्चे का डायग्नोस किया और ट्रीटमेंट आरंभ किया। टीम से श्रीमती छाया देवांगन, सुश्री विधि गौतम ने प्रोटोकॉल अनुसार नर्सिंग केअर स्टार्ट किया। बच्चे की माँ रेशमा ने बताया कि यहाँ एनआरसी में बहुत अच्छे इंतजाम हैं। अपने बेटे को पुनः पोषित देखकर बहुत खुशी हो रही है। डाक्टरों ने इसे ठीक करने के लिए हर संभव मेहनत की है। हम लोग 25 अगस्त को भर्ती हुए थे और अब घर जा रहे हैं। कुपोषण से मेरे बच्चे को मुक्ति मिली, मैं बहुत खुश हूँ। डॉ. शर्मा ने बताया कि अब तक इस एनआरसी से 70 से अधिक बच्चे गंभीर कुपोषण के दायरे से बाहर आ चुके हैं। कलेक्टर डॉ. सर्वेश्वर नरेंद्र भुरे के मार्गदर्शन में इसकी बेहतरी के लिए निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं। जीवनदीप समिति के माध्यम से कुक भी रखे गये हैं।
एपेटाइट टेस्ट के मुताबिक दिया जाता है डाइट-
       डॉ. आशीष शर्मा ने बताया कि केंद्र में एपेटाइट टेस्ट के मुताबिक बच्चे को खुराक दी जाती है। यदि एफ 100 आया तो बच्चे की पाचन क्षमता अच्छी मानी जाती है और इसके मुताबिक डाइट प्लान किया जाता है। 75 आने पर भिन्न तरह का कैलोरी डाइट दिया जाता है। खाने और दवाइयों के माध्यम से हेल्थ मैकअप की जाती है।
फीडिंग की सही टेक्निक सिखाई जाती है, भावात्मक संबंध भी-
       माताओं को फीडिंग की सही तकनीक बताई जाती है। साथ ही उन्हें कुछ मनोवैज्ञानिक टिप्स भी दिये जाते हैं जिनसे बच्चों से उनके रागात्मक संबंध और दृढ़ होते हैं। साथ ही ऐसे खिलौने बच्चों को दिये जाते हैं जिससे उनकी एकाग्रता बढ़ती है। फिजिकल एक्टिविटी बढ़ाने  वाले खिलौने भी दिये जाते हैं।

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